माँ बेटे का प्यार भाग 1

“बस बस … नाटक ना कर … वैसे बेटा ऐसे सिर्फ़ ब्रा और पैंटी में मैं ज्यादा मोटी लगती हूं ना? देख ना कैसा थुलथुला बदन हो गया है मेरा … तेरी कसी जवानी के आगे मेरा ये मोठा बदन … मुझे अच्छा नहीं लगता बेटे”

“मां … मेरी ओर देख … मेरी आंखों में देख … तेरा रूप देख कर मेरा क्या हाल होता है देख रही ऐ ना? तू ऐसी ही मुझे बहुत अच्छी लगती है मां … नरम नरम मुलायम बदन … हाथ में लेकर दबाने की इतनी जगहें हैं …. मुंह मारने की इतनी जगहें हैं …. तेरे इस खाये पिये बदन में जो सुंदरता है वो किसी मॉडल के बदन में कभी नहीं मिलेगी मां … जरा आना मेरे पास … ये देख … कैसा हो गया है. आ ना अम्मा, मेरे पास आ.”

“अभी नहीं बेटा नहीं तो तू ठीक से खाना भी नहीं खायेगा और शुरू हो जायेगा. चल खा जल्दी से.”

“मां तू भी खा ले ना, नहीं तो फ़िर बाद में खाने बैठेगी और मुझे उतना इंतजार करवायेगी”

“मैं तो खा चुकी पहले ही शाम को बेटे. मेरा उपवास था ना.”

“उपवास सिर्फ़ खाने का है ना मां? और कुछ तो नहीं? मेरे साथ तो उपवास नहीं करेगी ना मां? या मुझसे तो नहीं करायेगी उपवास?”

“नहीं मेरे लाल, तेरा तो मैं भोग लगाऊंगी. तुझे पकवान चखाऊंगी”

“ले मां, हो गया मेरा खाना”

“अरे और ले ना खीर, पूरा बर्तन भर के बनाई है तेरे लिये”

“अब नहीं मां, अब तो बस तू देगी वो प्रसाद लूंगा. खाना बहुत हो गया, अब तो मुझे पुलाव नहीं, वो फ़ूली फ़ूली डबल रोटी चाहिये जो तेरी टांगों के बीच है. चल जल्दी आ, मैं इन्तजार कर रहा हूं बेडरूम में”

“आज इतना उतावला हो गया, रोज रात मैं इन्तजार करती हूं तब …?”

“आज वसूल लेना अम्मा, रोज लेट आने का और तुझे तड़पाने का आज पूरा हिसाब चुकता कर देता हूं अम्मा, तू आ तो सही”

“ठीक है चल, मैं पांच मिनिट में आयी”

….. कुछ देर के बाद ….

“आज खाना कैसा था बेटे? तूने बताया ही नहीं, बस मेरी ओर टुकुर टुकुर देख रहा था पूरे खाने के वक्त”

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“बहुत अच्छा था अम्मा, ये भी पूछने की बात है? तेरी हर चीज अच्छी है, चल अब जल्दी से ये ब्रा और पैंटी भी उतार दे, इनमें तू बहुत मस्त लगती है, मजा आता है इन्हें मसलने में पर अभी मेरे को टाइम नहीं है, बहुत जोर से खड़ा है अम्मा.”

“सच उतार दूं?”

“नहीं अम्मा, मैं भूल गया कि आज अपने पास टाइम ही टाइम है, आज मैं जल्दी घर आ गया हूं, नौ ही तो बजे हैं, रोज तो ग्यारा बारा बज जाते हैं. मत उतार अम्मा, पर मेरे पास आ”

“अरे ये क्या … चल छोड़”

“गोद में ही तो लिया है अम्मा, कुछ बुरा तो नहीं किया है, ऐसे क्या बिचकती है. अब ये दिखा जरा ब्रा. क्या दिखती है अम्मा, साटिन की है लगता है, इतनी चिकनी मुलायम”

“अरे कैसे दबा रहा है रे ब्रा के ऊपर से ही, रोज तो ब्रा निकाल के दबाता है”

“आज बात और है मां, इस ब्रा ने सच में तेरी चूंचियों को निखार दिया है, लगता है कि इन गोलों में मीठा मुलायम खोवा भरा है खोवा जिसे मैं गपागप खा जाऊं. और खाने के पहले देखूं कि कितना मुलायम खोवा है … और ये डबल रोटी देख … इतनी फूली फूली डबल रोठी और इस पर ये रेशमी जाल …”

“बेटा, ये क्या कर रहा है, पैंटी के अंदर हाथ डाल रहा है बेशरम”

“तो ले, पैंटी निकाल दी, अब तो बेशरम नहीं कहेगी!”

“कैसा हे रे तू … और मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं साइकिल के डंडे पर बैठी हूं”

“डंडा तो है मां पर तेरे बेटे की जवानी का डंडा है जो अपनी मां के जोबन को देखकर खुशी से उछल रहा है … ये देख … ये देख”

“अरे … ये तो मेरे वजन को भी उठा लेता है मेरे लाल … कितना जोर है रे इसमें … जादू सा लगता है”

“ये जादू है मां तेरे बदन का, तेरे हसीन नरम नरम शरीर का, चल मां …. अब सहन नहीं होता, निकाल ना ये ब्रा, इसका बकल कैसा है अजीब सा, मेरे से नहीं निकलता”

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“तू पोंगा पंडित है, इतने दिन हो गये अपनी मां की पूजा करते करते और ब्रा का बकल भी नहीं खुलता तुझसे! ये ले … और ये उंगली क्यों रगड़ रहा है रे …कैसा तो भी होता है मेरे लाल”

“मां … कितनी गीली है ये तेरी … बुर अम्मा … तेरी चूत मां … डंडे को खाने का इरादा है इसका? डंडा तैयार है अम्मा, चल जल्दी”

“ले, मुझे क्या पता था कि तू इतना उतावला होगा! रोज तो ऐसे ही ब्रा और पैंटी में मुझे लेकर लिपटता है. ले निकाल दी दोनों, अब क्या करूं? सीधे चोदेगा क्या? देख कैसा झंडे जैसा खड़ा है, लगता है अपनी अम्मा को सलाम कर रहा है”

“हां अम्मा, ये तेरे रूप को सलाम कर रहा है. आज तो हचक हचक के चोदूंगा पर बाद में, पहले जरा अपने खजाने का रस पिलवा. कब से इस अमरित के स्वाद को याद कर करके मरा जा रहा हूं”

“अरे इतना उतावला क्यों हो रहा है, रोज तो स्वाद लेता है”

“पर अम्मा, पिछले कुछ दिन से इतनी देर हो जाती है रात को, बस जरा सा चख पाता हूं. आज मुझे ये अमरित घंटे भर स्वाद के लेकर पीना है”

“हां बेटे, पी ले, जितना मन है उतना पी, तेरे लिये ही तो संजो कर रखा है ये खजाना, जो चाहता है कर. आ जा, दे दे इसमें मुंह. बिस्तर पर लेटूं क्या? कि तेरे पास खड़ी हो जाऊं?”

“नहीं अम्मा, आज इस कुरसी में बैठ जा और टांगें खोल दे. मन लगाकर पलथी मारकर बैठूंगा अपनी अम्मा के सामने और उसकी बुर का रस चखूंगा.”

“ले बैठ गयी. और फ़ैलाऊं क्या? चूत खुल गयी कि नहीं तेरे लायक?”

“अम्मा, खुली तो है पर मुंह नहीं दिख रहा है ठीक से, झांटों में ढकी है. तेरी खुली चूत क्या दिखती है अम्मा, लाल लाल गुलाबी गुलाबी मिठाई जैसी. अभी बस झलक दिख रही है काले काले बालों में से, जरा उंगली से झांटें बाजू में करके चूत खोल कर रख ना, तेरी झांटें मुंह में आती हैं.”

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