माँ बेटे का प्यार भाग 1

“आ गया बेटे? आज जल्दी आ गया.”

“हां मां, महने भर से रोज देर हो जाती है, आज बॉस से बहाना बनाकर भाग आया”

“तो ऐसा क्या हो गया आज, आता रोज की तरह रात के दस बजे”

“तू नाराज है अम्मा, जानता हूं, इसीलिये तो आ गया आज”

“चल, आ गया तो आ गया, पर करेगा क्या जल्दी आके? वैसे भी सुबह रात मां से मिनिट दो मिनिट तो मिल ही लेता है ना”

“अब मां ज्यादती ना कर, रात को लेट आता हूं फिर भी कम से कम एक घंटी तेरी सेवा करता हूं.”

“बड़ा एहसान करता है रे, मां की सेवा करके”

“अब नाराजी छोड़ मां, सच्ची तेरे साथ को तरस गया हूं, सोचा आज मन भर के अपनी प्यारी पूजनीय मां की पूजा करूंगा.”

“बड़ा नटखट है रे, बड़ा आया मां की पूजा करने वाला. तेरी पूता और सेवा मैं खूब जानती हूं. एक नंबर का बदमाश छोरा है तू, बचपन में तेरे को जरा डांटकर रखती तो ऐसे न बिगड़ता”

“हाय अम्मा … झूट मूट भी नाराज होती हो तो क्या लगती हो! पर ये तो बता के अगर तू मुझे सीदा सादा बेटा बना कर रखती तो आज तेरी ऐसी सेवा कौन करता? बता ना मां. तुझे अपने बेटे की सेवा अच्छा नहीं लगती क्या, कुछ कमी रह जाती है क्या अम्मा? अरे मुंह क्यों छुपाती है … बता ना!”

“अब ज्यादा नाटक न कर, बातों में कोई तुझे हरा सकता है क्या! चल खाना तैयार है, तू मुंह धो कर आ, मैं भी आती हूं. जरा कपड़े बदल लूं”

“अब कपड़े बदलने की क्या जरूरत है अम्मा? अच्छे तो हैं. वैसे भी कोई भी कपड़े हों क्या फरक पड़ता है? कुछ देर में तो निकालने ही हैं ना.”

“कैसी बातें करता है रे, कोई सुन लेगा तो? ऐसे सबके सामने छिछोरपना न दिखाया कर”

“अब यहां और कौन है अम्मा सुनने को? और मैंने गलत क्या कहा? तू ही कुछ का कुछ मतलब निकालती है तो मैं क्या करूं? अब सोते वक्त कपड़े तो बदलते ही हैं ना? और बदलना हो कपड़े तो निकालने पड़ते ही हैं, उसमें ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

“हां हां समझ गयी, बड़ा सीधा बन रहा है अब. तू नहा के आ, मैं कपड़े बदल के खाना परोसती हूं”

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“मस्त पुलाव बना है अम्मा. आज खास मेहरबान है मुझपे लगता है”

“चल, ऐसा क्या कहता है. अब अपने बेटे के लिये कौन मां मन लगाकर खाना नहीं बनायेगी. और ले ना. और ऐसा क्या घूर रहा है मेरी ओर?”

“ये साड़ी बड़ी अच्छी है मां. और ये ब्लाउज़ भी नया लगता है, बहुत फब रहा है तेरे पे. तभी कह रही थी लड़िया के कि कपड़े बदल के आती हूं”

“अच्छा है ना?”

“हां मां. आज स्लीवलेस ब्लाउज़ पहन ही लिया तूने. मैं कब से कह रहा था कि एक बार तो ट्राइ कर”

“वो तू कब से जिद कर रहा था इसलिये बनवा लिया और तुझे पहन के दिखाया. तुझे मालूम है बेटे कि मैं स्लीवलेस पहनती नहीं हूं, ये मेरी मोटी मोटी बाहें हैं, मुझे शरम लगती है.”

“पर कैसी गोरी गोरी मुलायम हैं. हैं ना मां? फ़िर? मेरी बात माना कर”

“जो भी हो, मैं बाहर ये नहीं पहनूंगी. घर में तेरे सामने ठीक है, तुझे अच्छा लगता है ना”

“वैसे मां, सिर्फ़ ब्लाउज़ और साड़ी ही नहीं, मुझे और भी चीजें नयीं लग रही हैं”

“चल बेशरम …. ”

“अरे शरमाती क्यों हो मां? मेरे लिये पहनती भी हो और शरमाती भी हो”

“चल तुझे नहीं समझेगी मां के दिल की बात. वैसे तुझे कैसे पता चला?”

“क्या मां?”

“यही याने … कैसा है रे … खुद कहता है और भूल जाता है”

“अरे बोल ना मां, क्या कह रही है?”

“वो जो तू बोला कि सिर्फ़ साड़ी और ब्लाउज़ ही नहीं … और भी चीजें नयी हैं”

“अरे मां, ये साड़ी शिफ़ॉन की है … और ब्लाउज़ भी अच्छा पतला है, अंदर का काफ़ी कुछ दिखता है”

“हाय राम … मुझे लगा ही … ऐसे बेहयाई के कपड़े मैंने …”

“सच में बहुत अच्छी लग रही हो मां … देखो गाल कैसे लाल हो गये हैं नयी नवेली दुल्हन जैसे … तू तो ऐसे शरमा रही है जैसे पहली बार है तेरी”

“तू चल नालायक …. मैं अभी आती हूं सब साफ़ सफ़ाई करके …. फ़िर तुझे दिखाती हूं … आज मार खायेगा मेरे हाथ की तू बेहया कहीं का”

“मां … सिर्फ़ मार खिलाओगी … और कुछ नहीं चखाओगी …”

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“तू तो …अब इस चिमटे से मारूंगी. और ये पुलाव और ले, तू कुछ खा नहीं रहा है, इतने प्यार से मैंने बनाया है”

“मैं नहीं खाता … तुमसे कट्टी”

“अरे खा ले मेरे राजा … इतनी मेहनत करता है … घर में और बाहर … चल ले ले और … फ़िर रात को बदाम का दूध पिलाऊंगी”

“एक शर्त पे खाऊंगा मां”

“कैसी शर्त बेटा?”

“तू ये साड़ी और ब्लाउज़ निकाल और मुझे सिर्फ़ वो नयी चीजें पहने हुए परोस”

“ये क्या कह रहा है? मुझे शरम आती है बेटे”

“मां … आज ये शरम का नाटक जरा ज्यादा ही हो गया है. अब बंद कर और मैं कहता हूं वैसे कर. कर ना मां, तुझे मेरी कसम … तूने तो कैसे कैसे रूप में मुझे खाना खिलाया है … है ना?”

“चल तू कहता है तो … और नाटक ही सही पर तुझे भी अच्छा लगता है ना जब मैं ऐसे शरमाती हूं?”

“जरा पास आओ मां तो दिखाऊं कि कितना अच्छा लगता है”

“बाद में मेरे लाल. तू ये खीर ले, मैं अंदर साड़ी ब्लाउज़ रख के आती हूं”

कुछ देर के बाद ….

“वाह अम्मा, क्या मस्त ब्रा और पैंटी हैं. नये हैं ना? मुझे पहले ही पता चल गया था, तेरे ब्लाउज़ के कपड़े में से इस ब्रा का हर हिस्सा दिख रहा था.”

“हां बेटे आज ही लायी हूं. उस दिन तू वो मेगेज़ीन देखकर बोल रहा था ना कि अम्मा ये तुझ पर खूब फ़बेंगी तो आज ले ही आयी. तू कहता था ना कि वो हाफ़ कप ब्रा और यू शेप के स्ट्रैप की ब्रा ला. और ये पैंटी, वो तंग वाली, ऐसी ही चाहिये थी ना तुझे?”

“तू गयी थी मॉल पे अम्मा?”

“और क्या? वो मेगेज़ीन से मेक लिख के ले गयी थी, दो मिनिट में ली और वापस आ गयी”

“क्या दिखते हैं तेरे मम्मे अम्मा इन में, लगता है बाहर आ जायेंगे. पैंटी भी मस्त है, तेरी झांटों का ऊपर का भाग भी दिखता है. सच अम्मा, तू ऐसी ब्रा और पैंटी में अधनंगी खाना परोसती है तो लगता है जैसे मेनका या उर्वशी प्रसाद दे रही हों. लगता है कि यहीं तुझे पटक कर … ”

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